तीर्थ में साधन नहीं साधना जरूरी
रविवार की सुबह-सुबह एक और हादसे की ख़बर ने झकझोर कर रख दिया है। केदारनाथ में हुई दुःखद घटना में 2 बच्चों समेत 7 लोगों की दर्दनाक मौत हो गयी है। लगातार हो रही घटनाओं से भी लोग सबक नहीं ले रहे हैं।
चारधाम, अमरनाथ यात्रा, वैष्णोदेवी या फिर किसी भी तीर्थस्थल को अब लोगों ने पर्यटन का क्षेत्र बना दिया है जहाँ आस्था से अधिक लोग घूमने-फिरने के ख्याल से जाने लगे हैं। लोगों की बढ़ती भीड़ से कमाई का जरिया देखते हुए एविएशन कंपनी हर जगह हेलीकॉप्टर उड़ा रही है वहीं अधिकांश पहाड़ी क्षेत्रों में रोपवे बन रहा है। बेशक यह सुविधा तीर्थयात्रियों के लिए है लेकिन लोगों की भीड़ से सुरक्षा मानकों को धत्ता दिखाते हुए एविएशन कंपनियां पतंग ली तरह एक एक साथ दर्जनों हेलीकॉप्टर उड़ा रही है जिससे आये दिन हादसे हो रहे हैं। इन हेलीकॉप्टर में पूर्णतः प्रशिक्षित पायलट हैं या नहीं? यह भी जांच का विषय है। केदारनाथ समेत तमाम तीर्थस्थल इतने दुर्गम पहाड़ों पर हैं कि पहले लोग वहां साधना के लिए महीनों पैदल चढ़ाई कर जाते थे। तीर्थ में जाने का मतलब ही होता है कष्ट सहते हुए ईश्वर के दरबार मे भक्तिभाव से किसी तरह पहुँचना। मनुष्य का बस चले तो जिंदा ही स्वर्ग पहुँचने का रास्ता ढूंढने लगे। अन्य मजहबों में यह हो भी रहा है। जन्नत और 72 हूरों के ख्वाब में लोग खुद को बम से उड़ा भी रहे हैं। मक्का-मदीना में भी आये दिन बेतहाशा भीड़ के कारण हादसे की ख़बर आती रहती है। यहूदी, सिक्ख, जैन के तीर्थस्थलों का भी यही हाल है। ईश्वर इन घटनाओं से हमें संकेत देने की कोशिश करता है कि आस्था के साथ खिलवाड़ मत करो, हमारे पास सिर्फ आये जिसके हृदय में सच्चा भाव हो, तीर्थस्थान सैर सपाटे की जगह नहीं है। यहाँ आना है तो प्रकृति के साथ उसके अनुसार पैदल चलते हुए भक्तिभाव से भजन वंदन करते आओ। ईश्वर के पास जाने के लिए हेलीकॉप्टर या गाड़ी का शॉर्टकट रास्ता मत अपनाओ। अगर प्रकृति विरुद्ध आओगे तो उसका दण्ड भी पाओगे। जब तपस्या करनी होती है तो साधन का मोह पीछे छोड़ना होता है। पहले के साधु संत इतने सक्षम थे कि कहीं भी मन की गति से चले जाते थे लेकिन जब तपस्या करनी होती थी तो दुर्गम रास्तो से पैदल चलकर पर्वत की चोटी पर जाकर साधना करते थे। भगवान श्रीराम जब वनवास हेतु निकले तो उन्होंने रथ के साथ साथ तमाम राजसी वस्त्र और आभूषण त्याग कर पैदल ही चल पड़े। चाहते तो वह भी रथ और शिविर के साथ जाकर वनवास पूर्ण कर सकते थे। इसी तरह पाण्डवो ने भी पैदल चलकर अपनी तपस्या पूर्ण की। भगवान कृष्ण भी जब यदुवंशियों के लिए सुरक्षित स्थान की तलाश में निकले तो दाऊ बलराम के साथ पैदल ही निकले और समुद्र में द्वारिका नगरी बसाई।
अगर आप ईश्वर के बताए रास्तो पर चलते हुए जाते हैं तब जाकर आप सही मायनों में साधना और तपस्या कर पाते हैं। इन स्थलों में सिर्फ वही जाते थे जिन्हें वास्तव तप, जप और साधना करनी होती थी लेकिन आज ये सभी स्थल पर्यटन केंद्र बन चुके हैँ जहाँ केवल भीड़ है और उनसे कमाई करने के लिए प्रकृति के साथ लगातार छेड़छाड़ की जा रही हैं। पहाड़ों को काटकर सुरंग, सड़क, होटल, हेलीपैड इत्यादि का निर्माण हो रहा है लिहाज़ा प्रकृति मनुष्यों से अपना बदला ले रही है। इन प्राकृतिक स्थलों पर पर्यटकों की बेतहाशा भीड़ से वहाँ हर तरह के प्रदूषण भी बढ़ रहे हैं जिसके कारण वहाँ का संतुलन बिगड़ने लगा है। इस परिवर्तन का विरोध प्रकृति हादसों के रूप में दिखाती है बावजूद इसके लोग समझते नहीं। इन दिनों वीकएंड पर लोग इन स्थलों में सैर सपाटे के लिए निकल पड़ते हैं। आज किसी भी तीर्थस्थल में शनिवार, रविवार या छुट्टियों के दिन पांव रखने की जगह नहीं मिलती जिससे हादसे भी होते हैं।
पंकज प्रियम
